हल्दीघाटी का युद्ध, झांसी का युद्ध
हल्दीघाटी एवं झांसी युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध -
महाराणा प्रताप ने राज्य अभिषेक के बाद अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की तथा जन्म भूमि की रक्षा हेतु प्रतिज्ञा की ‛जब तक मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दिला लेता तब तक सोने चांदी के बर्तनों में भोजन नहीं करूंगा तथा पलंग पर नहीं सोऊंगा पतले ही मेरा भोजन पात्र तथा धरा ही मेरा बिछौना होगा’ इस प्रतिज्ञा का लोक मानस पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस वजह से ही आगे हल्दीघाटी युद्ध में सभी जाति तथा वर्ग के लोग मेवाड़ की भूमि की रक्षा के लिए कूद पड़े।
अकबर महाराणा प्रताप की शक्ति को अच्छी तरह से पहचानता था। अतः उसने कूटनीति का सहारा लेकर प्रताप को अधीन करने का प्रयास किया। जलाल खां कोरची , आमेर का युवराज मानसिंह तथा उसके पिता राजा भगवानदास राजा , टोडरमल को संधि वार्ता हेतु भेजा किन्तु यह संधि वार्ता प्रताप को अधिन करने का प्रयास असफल रहे।
संधि वार्ता की असफलता के बाद 7 मार्च 1576 अकबर आया और उसने मानसिंह को महाराणा के विरुद्ध आक्रमण हेतु सेनापति नियुक्त किया।
मानसिंह सेना को लेकर अजमेर से मांडलगढ़ तक पहुंचा तथा दो महीने तक वही पर डेरा डाल महाराणा प्रताप के आक्रमण का इंतजार करने लगा। परंतु महाराणा प्रताप तथा उनके सामन्त सरदार शत्रुओं को पहाड़ियों में ही घेरकर मारना चाहते थे। शत्रु सेना के पास सैन्य बल अधिक तथा तोपखाना भी था। इस कारण से छापामार युद्ध नीति को अपनाने का निश्चित किया।
महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को दो भागो में बांट कर आक्रमण करने की व्यूह रचना बनाई। ऐतिहासिक वर्णन के मुताबिक मानसिंह के मुगल सेना में 80000 थे। जबकि राणा की सेना में 20000 घुड़सवार ही थे।
18 जून 1576 को प्रातः 10:00 बजे दोनों सेनाएं अपने अपने मोर्चे पर तैनात थे। हल्दीघाटी के दर्रे से निकलकर महाराणा प्रताप ने बादशाह बाग में मोर्चाबंदी की थी। जब महाराणा प्रताप की सेना के एक भाग ने एक तरफ से आक्रमण किया तो दूसरी तरफ से भी दूसरे दस्ते ने मुगलो की सेना पर आक्रमण किया तो मुगले की सेना में भगदड़ मच गई।
बदायूनी लिखता है - ‛इस वक्त हमारी सेना की पूरी तरह हार गई’ राणा ने हल्दीघाटी से निकलकर गांजी खां के सैन्य दल पर प्रचंड रूप से हमला किया और उसकी सेना का संहार कर मध्य तक जा पहुंचा। जिससे मुगल फौज पहले ही हमला से ही भाग निकली , बनास नदी के उस पार 5 - 6 कोस तक भागती रही। मिहत्तर खां ने चंदावल से निकलकर ढोल बजाया व कहा ‛बादशाह खुद सेना लेकर आ गया है तब जाकर सेना रुकने का नाम लिया।
इस युद्ध में हाथियों की लड़ाई कि भी प्रसिद्ध है। भीषण मारकाट का दृश्य सामने रहा था। महाराणा प्रताप के प्रिय हाथी रामप्रसाद में शत्रु सेना के 14 हाथियों को मार डाला। तब मुगल सैनिकों ने चक्रव्यूह बनाकर उसके महावत को मारकर उसे वश में किया। अकबर ने रामप्रसाद का धर्मांतरण कर उसका नाम पीर प्रसाद रखा परंतु उस स्वामी भक्त हाथी ने अकबर का दिया हुआ अन्न जल त्याग दिया और 18 दिन जीवित रहकर का अपने प्राण त्याग दिया।
भीम सिंह डोडिया ने मानसिंह के हाथी के पांव पर एक कटार मारी जिससे मानसिंह का महाराणा प्रताप से सामना हो गया। प्रताप ने अपने चेतक घोड़े को पिछले पैरों पर खड़ा किया तथा चेतक को अपने अगले दोनों को हाथी के मस्तक पर टिका दिए तब प्रताप ने हाथी पर सवार मानसिंह पर भाले से वार किया। मानसिंह का महावत मारा गया और मानसिंह के हौदे में छिपकर अपने प्राण की रक्षा की। हाथी की सूंड में लटकी तलवार से चेतक का पिछला पैर घायल हो गया था फिर भी वह युद्ध भूमि में विचरण करता रहा। मानसिंह का हाथी अनियंत्रित होकर रणभूमि से भाग गया।
इधर महाराणा प्रताप की वीरता तथा रण कौशल का एक और उदाहरण देखने को मिला। तलवार के एक ही वार से उन्होंने बहलोल खां को शिरस्त्राण , जिरह - बख्तर व घोड़े सहित दो भागों में विभक्त कर दिया।
दोनों तरह के सैनिकों के मरने का कटने के कारण चारों ओर रक्त का तालाब सा बन गया था ( यह स्थान अब रक्त तलाई के नाम से कहलाता है )
मिहत्तर खां अपने तोपखाने के साथ फिर युद्ध मैदान में आ गया। ऐसी स्थिति में झाला मानसिंह ने महाराणा प्रताप से कहा कि मैं शत्रुओं को रखता हूं आप सेना के दोनों भागों को एक कर पहाड़ियों में मोर्चा बांध ले। महाराणा प्रताप अपने सहयोगी का आदेश मानकर पहाड़ियों में लौट गए। झाला मानसिंह ने महाराणा प्रताप का तोप धारण कर ‛ मैं प्रताप हूं ’ कह कर प्रताप को धोखा दिया तथा उन्हें रोकते हुए अपना बलिदान दे दिया। इस प्रकार इस भीषण युद्ध में महाराणा प्रताप को मुगल सैनिक पराजित ना कर सके और इस हल्दीघाटी का युद्ध संपन्न हुआ।
झांसी का युद्ध -
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंतिम आहुति देने वाले इस महान वीरांगना की उस समय आयु केवल 22 वर्ष थी। आजादी की लड़ाई लड़ने वाले सभी शहीदों की प्रमुख प्रेरणास्रोत रही है झांसी की रानी रानी लक्ष्मीबाई। उनके बचपन का नाम मनु था। वह कोई राजकुमारी नहीं थी बल्कि पेशवाओ के विश्वासपात्र एक सरदार मोरोपंत की पुत्री थी। उनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। मनु का जन्म 19 नवंबर 1835 को दीपावली से 1 दिन पूर्व वाराणसी में हुआ था। तब तक भारत में अंग्रेजों का शिकंजा पूरी तरह कस चुका था। वह अत्यंत चंचल और सुंदर थी और इस कारण पेशवा बाजीराव उसे छबीली कहते थे। शादी के समय ससुराल पक्ष द्वारा लक्ष्मीबाई दिया गया था। मनु की माता का देहांत उसी समय हो गया जब वे 4 वर्ष की थी। उनके पिता मोरोपंत ने दूसरी शादी नहीं की।
यद्यपि नाना साहेब और राव साहेब उम्र में मनु से बड़े थे परंतु उनके साथ मनु घुड़सवारी , तलवारबाजी और युद्ध के अभ्यास जैसे खतरनाक हुनर सीखती थी।16 वर्ष की उम्र में मनु की शादी झांसी के नरेश गंगाधर राव के साथ हो गई। महाराज के निधन के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की बागडोर संभाल ली। मगर लॉर्ड डलहौजी झांसी को हड़पने का कुचक्र करने लगा था। इसका परिणाम 1857 के युद्ध के रूप में सामने यह आया। सेनापति ह्यूरोज ने विशाल सेना के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने 12 दिन तक अंग्रेजों को झांसी में कदम रखने नहीं दिया। अपनी जनता की रक्षा के लिए उन्होंने अपने दत्तक पुत्र को पीट पर बांध जिले के बाहर तलवार चलाते हुए निकल गई और ग्वालियर तक पहुंच गई वहां रानी अंग्रेजों से युद्ध करते हुए गंगादास साधु की कुटिया में घायल अवस्था में पहुंची तथा वही वीरगति को प्राप्त हो गई। रानी के सैनिकों के पास इतना समय नहीं था कि वे रानी के अंतिम संस्कार करते। तो बाबा गंगादास ने अपनी कुटिया में आग जलाकर अंतिम संस्कार किया। उनके साथी लड़ते रहे। अंग्रेज उनके शरीर को स्पर्श भी नहीं कर पाये।
Very nice
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