कश्मीर घाटी, लद्याख, हिमनद, उत्तराखंड का सामान्य जानकारी





कश्मीर घाटी, लद्याख, हिमनद, उत्तराखंड का सामान्य जानकारी


कश्मीर घाटी -

समुद्र के तल से 1850 मीटर की ऊंचाई पर पर्वतों से घिरी हुई है कश्मीर की घाटी है। जिसे झेलम की घाटी भी कहते हैं। लगभग 135 किलोमीटर लंबी तथा 32 किलोमीटर चौड़ी इस पर्वत मध्य मैदान का निर्माण झेलम नदी द्वारा हुआ है लेकिन यह भी आश्चर्य की बात है कि पर्वतों के मध्य इतने बड़े मैदानी क्षेत्र का निर्माण कैसे हुआ ? वैज्ञानिकों के अनुसार यहां कभी एक झील हुआ करती थी जो एक बार भूकंप के कारण पहाड़ में दरार पड़ने से झील का पानी झेलम नदी में बह गया। उस प्राचीन झील का अवशेष आज भी डल झील के रूप में विद्यमान है। जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर भी इसी घाटी किनारे में बसी है।

अपने प्राकृतिक सौंदर्य के कारण विश्वविख्यात कश्मीर अंतरराष्ट्रीय सैलानियों का एक प्रमुख केंद्र रहा है। भारत में बाहर से आने वाले अंतरराष्ट्रीय पर्यटक भारी संख्या में कश्मीर को देखने के लिए आती है। डल झील में तैरते नाव के घर जिन्हें हाउसबोट कहते हैं जिसका विशेष आकर्षण है और यहां के लोगों की प्रमुख आजीविक का प्रमुख स्रोत भी है। कृषि के अलावा यहां अनेक प्रकार के उद्योग हैं जैसे कालीन उद्योग , अखरोट की लकड़ी के फर्नीचर , बुनाई , कश्मीरी पश्मीना साल , केसर आदि।


करेवा - कश्मीर घाटी के उची पहाड़ियों से यह घिरा हुआ है। इसका धरातल तस्तरिनुमा है। हजारों साल पहले यहां विशाल झील थी। जिसमें चारों तरफ की पहाड़ियों से बहुत से नदी-नालों का पानी बह कर आता था। यह नदी नाले अपने साथ लाए अवसाद को कई सालों तक झील में जमा करते रहे। पृथ्वी की आंतरिक प्रक्रिया के कारण पीरपंजाल श्रेणी ऊपर उठने लगी जिससे झील का पानी बाहर बह गया और इस पहाड़ी के  कगारो में सीडीनुमा खेतो का निर्माण हुआ जो खेती के लिए काफी उन्नत है। इसे करेवा कहते हैं। यहां के क्षेत्रीय भाषा में इसे वुद्रा कहते हैं। इस सीडीदार भूमि पर बेशकीमती के साथ या जाफरान की खेती होती है। केसर के फूल से वर्तिकाग्र को निकाल लिया जाता है तथा इसका उपयोग कई औषधियो के लिए एवं जायकेदार खाना बनाने के लिए इस मसाले का उपयोग करते हैं। कश्मीरी केसर दुनिया भर में मशहूर है। 



हिमनद : बर्फ की नदी

बहुत अधिक ठंडे प्रदेशो अथवा ऊंचे पहाड़ों पर पानी की न होकर हिम की वर्षा होती है। इस वर्षा में हिम धूनी हुई रुई के समान गिरता है किंतु जमीन पर गिरने के बाद यह दबाव के कारण सघन हो जाता है और उसका कुछ अंश कठोर बर्फ का रूप ले लेता है। हिम क्षेत्र से बर्फ नीचे की ओर ढाल के साथ नीचे कि तरफ खिसकता रहता है। इस खिसकते हुए बर्फ को हिमनद या ग्लेशियर कहते हैं। नदियों की तरह हिमनद भी घाटियों से होकर बहता है अर्थात हिमनद बर्फ की नदी है जिसका स्रोत हिम क्षेत्र है। हिमालय में बहुत सारे हिमनद है जिनमें सबसे बड़ा है गंगोत्री। जिसकी लंबाई 32 किलोमीटर है। खुंबू हिमनद नेपाल के क्षेत्र में स्थित है। यह पर्वत चढ़ने के लिए सबसे लोकप्रिय मार्ग है। वायुमंडल के बढ़ते तापमान के वजह से हिमनदों के बर्फ पिघलने लगे हैं और उनकी लंबाई कम होती जा रही है।




लद्याख : शीत मरुस्थल का एक गांव - 


जम्मू और कश्मीर राज्य के पूर्वी हिस्से में एक शीत मरुस्थल लद्दाख स्थित है। यह थार कि तरह गर्म मरुस्थल नहीं है बल्कि शुष्क और ठंडा है। पथरीली भूमि और ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच दूर-दूर तक फैला बर्फ का यह सूखा मैदान है। जहां बारिश कम मात्रा में होती है। लद्दाख का एक गांव के बारे में जाने। जिसका नाम ‛फे’ है। यह जास्कर घाटी में पेंजिला नदी के समीप पहाड़ी ढाल पर 80 घरो का यह गांव है। इस गांव में उपजाऊ भूमि पर ही पत्थर गारो और ईंटो से बने छोटे-छोटे घर हैं।  इनकी छते सपाट होती है। सपाट छतों का प्रयोग पशुओं का चारा रखने के लिए भी किया जाता है। इस स्थान पर भौगोलिक परिस्थितियां इतनी कठोर है कि यहां पर लोग आपस मे मिलजुल कर छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं।

इन गांव के लोग साल भर गर्म कपड़े पहनते हैं। जिसे गोचा भी कहते हैं। यहां केवल जलवायु ही शुष्क नहीं नही हैं बल्कि गांव में पानी की भी कमी है। सर्दी के महीने में ठंड के गांव के समीप पेंजिला नदी भी जम जाति है और लोग उस पर चलते हैं। नदी के जमने से एक गांव से दूसरे गांव तक जाने के लिए छोटा रास्ता बन जाता है। यहां खेती होती है पर खेत छोटे-छोटे होते है क्योंकि जमीन पथरीली है और समतल भी नहीं है। ज्यादातर लोग मटर , गोभी , आलू ,गेहूं या बाजा उगाते हैं जो अधिकांशतः घर में ही उपयोग हो जाता है। बाजार में नहीं बेचा जाता। ऐसी कृषि जिसमें केवल इतनी ही उपज हो पाती हो जिससे घर की मूल जरूरत पूरी हो सके निर्वाह कृषि कहलाती है।

 वर्षा तथा पानी की कमी और जलवायु तथा मिट्टी की कठोरता होने के कारण यहां साल पर खेती नहीं हो पाती। खेती केवल गर्मियों के मई माह के अंत से अक्टूबर माह की शुरुआत तक होती है। गर्मियों में हिमनदी पिघल कर बहते पानी को नालियों के माध्यम से खेतों तक पहुंचा कर सिंचाई की जाती है। सर्दियों में 1 किलोमीटर दूर सोते (चश्मे) से पानी लाया जाता है। कभी-कभी तो बर्फ को पिघला कर भी उपयोग में लेते हैं। लोगो के पास जानवर भी होते है। प्रमुख जानवर याक , डिमो , जो , जोमो , घोड़े गधे तथा भेड़-बकरियां होते हैं। जो और जोमो गाय तथा याक के मिश्रित रूप है। डिमो याक का मादा रूप है। याक तथा जो का उपयोग खेत के जोताई के लिए किया जाता है। वही डिम , जोमो , भेड़-बकरियों से दूध निकालकर पनीर तथा मक्खन बनाने के लिए किया जाता है। गर्मियों में कुछ परिवार गांव की भेड़ बकरियों को लेकर ऊंचे स्थान वाले जगहों में चले जाते हैं। सर्दियों में जब ऊंचाई पर ठंड बढ़ जाती है तो वे पुनः गांव की ओर लौट आते हैं। जानवरों के साथ मौसम के परिवर्तन के अनुसार होने वाले इस तरह के प्रवास को मौसमी प्रवास कहा जाता है। सर्दियों में जब कुछ खेती ही नहीं होती तब भेड़ बकरियों की उन से ही महिलाएं वस्त्र बनाती हैं यह लोग प्रकृति के साथ गहरा संबंध बना कर रहते हैं तथा उपलब्ध किसी भी वस्तु को व्यर्थ नहीं जाने देते।



उत्तराखंड : एक पहाड़ी गांव -


उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री की ओर जाने वाले रास्ते में 2500 मीटर की ऊंचाई पर एक गांव हैं जिसे वार्सू कहते है। एक टेढ़ी-मेढ़ी घुमावदार सड़क लोगों को इस पहाड़ी तक पहुँचाती है। इस गांव में केवल 20 से 25 घर होते है। पहाड़ों पर घर छोटा ही होता है। पहाड़ी क्षेत्रो में समतल भूमि की कमी होने के कारण घर ढलानों पर ही बनाए जाते हैं। अधिकतर घर लकड़ी और मिट्टी से निर्मित होते हैं। छते ढलवा होती है ताकि बारिश का पानी या बर्फ ज्यादा समय के लिये जमा ना रहे। स्लेटों की खपरें भी होती है। कुछ घरों की छत सपाट होती है ताकि सर्दियों में मक्का सुखाने अथवा जानवरों को चारा एकत्रित करने के लिए उपयोग में लाया जा सके।

हिमालय पर खेती के लिए उपयुक्त जमीन बहुत कम है। चौड़ी घाटियों और हल्के ढाल वाले पहाड़ों पर खेती की जा सकती है। जहां जहां ऐसी जमीन मिलती है वहां लोगों का आवास होता हैं। इस कारण हिमालय में दूर-दूर और छोटी-छोटी बस्तियां होती है। खेतिहर भूमि की कमी होने के कारण पहाड़ों पर आबादी कम और बिखरी हुई होती है। मिट्टी पथरीली और जलवायु शीतोष्ण होती है। सर्दियों के महीनों में एक बार बर्फ जरूर गिरती है। वर्षा सामान्य होती है। बारिश के पानी से मिट्टी का कटाव बहुत ज्यादा होता है जिसे सीडीनुमा खेतों की मदद से कटाव को रोका जाता है।


हिमालय के लोग सीडीनुमा खेतों में चावल , मक्का , सब्जियां और फल का उत्पादन करते हैं। पहाड़ी खेतों में अनाज की पैदावार ज्यादा नहीं होती पर यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन खेतों में सब्जियो का उत्पादन बहुत होती है। आपने पहाड़ी आलू और शिमला मिर्च के बारे में तो सुना ही होगा इसी तरह सेब , आलूबुखार , खुबानी नाशपाती और चेरी जैसे फलों तथा सब्जियों की उत्पादन पहाड़ों के दलालों पर होती है। इन फलों को बड़े पैमाने पर बागानों में लगाया जाता है और उन्हें दूर-दूर के बाजारों में बेचा जाता है।

यहां अधिकांशतः सदाबहार वन हैं जिनके पत्ते एक साथ नहीं झड़ते। इन पेड़ों की पत्तियों को जानवरों के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। लकड़ी इंधन के रूप में होता है। भोजन खेतों से प्राप्त ऊपज से पूरा हो जाता है। आय प्राप्त के लिए लोग मजदूरी करते हैं। तथा जड़ी-बूटी ईकट्ठा करके बेचते हैं। आय के स्रोत के अभाव में युवा शहर में स्थित कारखानों में काम करने के लिए प्रवास करने लगे हैं। औरतें घर के काम के साथ खेतो में भी काम करती है।


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